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अच्छी-अच्छी कथाएँ

जगतराम आर्य

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3516
आईएसबीएन :81-88118-10-9

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बाल सुलभ कहानियाँ ...

Achchhi Achchhi Kathayein a hindi book by Jagatram Arya - अच्छी-अच्छी कथाएँ - जगतराम आर्य

अत्यंत लोभ से हानि

एक सेठ जी का बहुत दिनों से यह मन हो रहा था कि अगर कोई थोड़ा खाना खाने वाला ब्राह्मण मिले, तो उसको भोजन खिलाएँ। यद्यपि सेठ जी बड़े मालदार थे, परंतु अत्यंत लोभी होने के कारण उनकी यह दशा थी कि वे बहुत दिनों तक ऐसे ही किसी ब्राह्मण की खोज में जुटे रहे। सेठ जी के बहुत दिनों तक यह विचार करते रहने के कारण गाँव के ब्राह्मणों ने समझ लिया कि सेठ जी बहुत कंजूस हैं।

एक दिन सेठ जी और एक गाँव के ब्राह्मण में वार्तालाप हुआ। सेठ जी ने पूछा, ‘‘आप कितना खाते होंगे ?’’ ब्राह्मण ने कहा, ‘‘यही कोई एक छटाँक-भर के करीब।’’ यह उत्तर सुनकर सेठ जी ने उसी समय उस ब्राह्मण को दूसरे दिन खाने के लिए न्योता दे दिया और उससे बोले, ‘‘पंडित जी, मैं कल फलाँ शहर में सौदा तुलवाने जाऊँगा, इसलिए आप मेरे घर जाकर भोजन कर आएँ।’’ ब्राह्मण ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, लाला जी की जै बनी रहे। हम तो हमेशा आप ही लोगों का खाते हैं।’’ यही बात सेठ जी ने अपने घर पहुँच सेठानी से कह दी कि हम अमुक ब्राह्मण को कल के लिए भोजन का न्योता दे आए हैं, मैं तो कल फलाँ शहर में सौदा तुलवाने, तुम जो-जो ब्राह्मण माँगे, दे देना। कारण, सेठ जी ने यह तो जान ही लिया था कि जब पंडित जी की छटाँक-भर की खुराक है दूसरे दिन सेठ जी तो सौदा तुलवाने चले गए और ब्राह्मण ने आकर सेठानी को आशीर्वाद दिया। सेठानी जी की तरह कंजूस न थी बल्कि बड़ी साध्वी, पतिव्रता और ब्राह्मण-भक्त थी। उसने पूछा, ‘‘बोलिए पंडित जी, आपको क्या-क्या चाहिए ?’’

पंडित जी ने कहा, ‘‘दस मन आटा, दो मन घी, चार मन शाक, दो मन शक्कर, पाँच सेर नमक और एक सेर मसाला, यह तो हुआ घर के लिए।’’ सेठानी ने पंडित जी की आज्ञानुसार सब सामान निकलवा दिया। इधर पंडित जी ने सामान को घर भेज सेठानी से कहा, ‘‘अब हमारे लिए जल्दी से चौका लगवाओ।’’ सेठानी ने चटपट चौका लगवाकर झटपट पंडित जी को भोजन करवाया। भोजन करने के बाद पंडित जी बोले, ‘‘सेठानी जी, अब हमारी सौ अशर्फियाँ, जो दक्षिणा की चाहिए, वे भी मिल जाएँ तो हम आपको आशीर्वाद देकर घर चलें।’’ सेठानी ने सौ अशर्फियाँ भी दे दीं। ब्राह्मण आशीर्वाद दे विदा हुआ।

ब्राह्मण अपने घर में जा चादर ओढ़कर लेट गया और अपनी स्त्री (ब्राह्मणी) से बोला, ‘‘अगर सेठ जी आएँ, तो तू रोने लगना और कहना कि पंडित जी तो जब से आपके घर भोजन करके आए हैं, तब से ही बहुत सख्त बीमार हैं; बल्कि उनके बचने की आशा नहीं। न जाने आपने क्या खिला दिया।’’ इधर जब शाम हुई तो सेठ जी दिन-भर के भूखे (यहाँ तक कि वे कंजूसी के मारे कंकड़ी-भर गुड़ खाकर बाहर पानी भी नहीं पी सके थे) घर में आए, तो सेठानी से पूछा, ‘‘पंडित जी भोजन कर गए ?’’ सेठानी ने कहा, ‘‘हाँ, पंडित जी ने इतना-इतना सामान घर के लिए माँगा और पाँच सेर तक की पूड़ियाँ खाकर दक्षिणा में सौ अशर्फियाँ भी ले गए।’’ सेठ जी यह सुनकर मूर्च्छित हो गए।

थोड़ी देर में जब सेठ जी को होश आया, तो वह ब्राह्मण के घर पहुँचे। ब्राह्मणी दरवाजे पर ही बैठी थी। सेठ जी ने पूछा, ‘‘पंडित जी कहाँ हैं ?’’ यह सुनते ही ब्राह्मणी फूट-फूटकर रोने लगी और बोली, ‘‘उनको तो, जब से आपके यहाँ से भोजन करके आए हैं, न जाने क्या हो गया है। बहुत सख्त बीमार हैं, बल्कि बचने की भी आशा नहीं। जाने आपने अपने घर में क्या खिला दिया ?’’ यह सुनकर सेठ जी ब्राह्मणी के आगे हाथ जोड़ने लगे और बोले, ‘‘चिल्लाओ मत, हम दो सौ रुपए तुमको और दे देते हैं, सो इन रुपयों से उनकी दवा-दारु करवाओ, पर यह मत कहना कि सेठ जी के घर खाने गए थे, उन्होंने न जाने क्या खिला दिया।’’

नाक की ओट में परमेश्वर

दक्षिण देश की ओर आज से काफी समय पहले राजाओं के जमाने में अपराधियों को नाक, कान, हाथ, पैर छेदन का दंड दिया जाता था। इसी प्रथा के अनुसार एक बार वहाँ के एक अपराधी को नाक काटने का दंड दिया गया। वह अपराधी राजा के दरबार से निकलते ही कूद-कूदकर नाचने और तालियाँ पीट-पीटकर बड़ा ही प्रसन्न होने लगा। लोगों ने पूछा, ‘‘तू इतना प्रसन्न क्यों हो रहा है ?’’ उसने कहा, ‘‘नाक की ओट में परमेश्वर था, सो मुझे नाक कटने से परमेश्वर दीखने लगा।’’
इस प्रकार नाच-नाचकर नाक कटाने के लिए उसने कई मनुष्यों को तैयार किया। उसने कहा, ‘‘जिस समय तुम नाक कटा लोगे, परमेश्वर दीखेगा।’’ लोगों ने उसकी बात पर विश्वास कर अपनी-अपनी नाक कटवा लीं। इस पर एक नकटे ने उन लोगों से कहा, ‘‘आखिर तो अब आप लोगों की नाकें कट ही गईं, इसलिए तुम भी नाचने लगो और कह दो कि हमें भी परमेश्वर दीखने लगा, नहीं तो समाज में बड़ी निंदा होगी।’’ यह सुनकर कई मनुष्य नाचने लगे और कहने लगे कि हमें भी नाक कटने से परमेश्वर दीखने लगा। इस प्रकार होते-होते चार हजार नकटों का समुदाय बन गया।

एक बार ये नकटे नाचते-नाचते एक राज्य में पहुँचे, तो वहाँ के राजा को खबर मिली कि चार हजार नकटे नाचते फिरते हैं और कहते हैं कि नाक की ओट में परमेश्वर था, सो अब दीखने लगा है। अतः राजा ने उन सबको बुलाया और पूछा, तो वे सब राजा के सामने भी वैसे ही नाचने लगे और बोले, ‘‘महाराज, हमें परमेश्वर दीखता है।’’ राजा ने कहा, ‘‘अगर ऐसा है, तो हम भी नाक कटाएँगे।’’ अपने ज्योतिषी जी से राजा बोला, ‘‘ज्योतिषी जी, आप पत्रे में देखिए कि हमारे नाक-कान कटाने का मुहूर्त कब बनता है ?’’ ज्योतिषी ने पत्रा निकाला और मीन, मेष कर कहा, ‘‘आपके नाक कटाने का मुहूर्त माघ बदी दोज का प्रातःकाल बहुत ही अच्छा है।’’ धन्य ज्योतिषी जी, आपके पत्रे में नाक कटाने का भी मुहूर्त निकला। इसके बाद वे नकटे चले गए।

राजा के दीवान ने घर जाकर यह बात अपने पिता से कही।
उसकी उमर अस्सी वर्ष के करीब थी और वह चालीस वर्ष तक राजा के यहाँ दीवान भी रह चुका था। यह सुनकर उसने दूसरे दिन राजा के यहाँ जाकर राजा को अभिवादन कर नाक कटाने का संपूर्ण वृतांत पूछा और बोला, ‘‘अन्नदाता, मैंने आपका नमक-पानी तमाम उमर खाया है और बूढ़ा भी हूँ, इसलिए आप पहले मुझे नाक कटाकर देख लेने दीजिए। नाक कटने पर अगर मुझे परमश्वर दिखलाई दें तो आप अपनी नाक कटाएँ, नहीं तो आप न कटाएँ।’’ बूढ़े दीवान की यह बात राजा के मन को भा गई, अतः उन्होंने ज्योतिषी जी से कहा, ‘‘ज्योतिषी जी, अब आप हमारे पुराने दीवान जी के नाक कटाने का मुहूर्त देखिए।’’ ज्योतिषी जी ने पुनः पत्रा निकालकर मीन, मेष, वृष, मिथुन कर कहा, ‘‘पुराने दीवान जी के नाक कटाने का मुहूर्त पौष सुदी पूर्णिमा को अच्छा है।’’

राजा ने पौष सुदी पूर्णिमा को नकटों को बुलाकर एकत्र किया और दीवान जी को बुलाकर नकटों से कहा, ‘‘लो, इनकी नाक काटो और परमेश्वर दिखाओ।’’ उनमें से एक बहुत तीक्ष्ण छुरे से दीवान जी की नाक काट दी। बेचारे दीवान जी को बड़ा ही कष्ट हुआ। दीवान जी हाथ में कटी नाक पकड़कर रह गए। पुनः नकटों ने दीवान जी के कान में कहा, ‘‘अब आपकी नाक तो कट ही गई है, इसलिए तुम भी नाचने-कूदने लगो और यह कहने लगो कि हमें परमेश्वर दीखता है, नहीं तो जनता में बड़ी निंदा होगी।’’ दीवान जी ने राजा से साफ कह दिया, ‘‘ये सब बड़े धूर्त हैं, इन्होंने हजारों आदमियों की व्यर्थ नाकें कटा डालीं। नाक कटाने पर परमेश्वर-वरमेश्वर कुछ भी नहीं दीखता; बल्कि नाक काटकर हमारे कान में इन्होंने ऐसा-ऐसा कहा।’’ राजा ने यह भेद जानकर उन सबको पकड़वा-पकड़वाकर उचित दंड दे उस गिरोह को तोड़ा।
आप लोग दुनिया का प्रवाह देखिए कि ऐसे-ऐसे मतों ने भी अपना-अपना प्रचार किया। इसलिए अंधविश्वास अच्छा नहीं होता।

फूट से हानि

एक ब्राह्मण, एक क्षत्रिय और एक नाई तीनों कहीं जा रहे थे। सफर लंबा था। रास्ते में तीनों को भूख ने सताया और चने का फला हुआ एक खेत भी इनकी दृष्टि में आया। तीनों ने सोचा कि प्रथम तो इस समय इस जंगल में कोई है नहीं, जो हम लोगों को इस खेत में चने उखाड़ते हुए देख ले; दूसरे, यदि कोई देख भी लेगा, तो हम उससे कह देंगे कि भाई जी, हमने भूख के कारण थोड़े-थोड़े चने उखाड़े हैं।

वह खेत एक जाट का था और दोपहर का समय था। जाट जी ने सोचा कि दोपहर का समय है, चलो, एक चक्कर खेत की ओर ही लगा आएँ कि जिससे कोई नुकसान न करे। जाट जी कंधे पर कुल्हाड़ा रख खेत की ओर चल पड़े। वहाँ जाकर क्या देखते हैं कि उनके खेत में तीन जवान चने उखाड़ रहे हैं। जाट ने सोचा कि अगर मैं एकाएक इन तीनों को कुछ कहता हूँ, तो प्रथम तो यह जगंल है, यहाँ कोई है भी नहीं; दूसरे, मैं अकेला और ये तीन हैं, इसलिए युक्ति से काम लेना चाहिए।
अतः जाट दी ने तीनों के पास जाकर सबसे पहले ब्राह्मण महाराज से पूछा, ‘‘आप कौन हैं ?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘हम ब्राह्मण हैं।’’ तब जाट जी ने कहा, ‘‘ महाराज, आप तो परमेश्वर की देह हैं, आपने बड़ी दया की, भला आप काहे कभी हमारे खेत में आते। धन्य हो महाराज, हमारा तो खेत पवित्र हो गया। यदि आपको और दो-चार गट्ठे चनों की आवश्यकता हो, तो उखाड़ लीजिए। आपका ही तो खेत है।’’ इसके पश्चात् जाट जी ने क्षत्रिय से पूछा, ‘‘आप कौन हैं ? उन्होंने कहा, ‘‘हम तो क्षत्रिय हैं।’’ जाट जी बोले, ‘‘धन्य हो महाराज कुँवर जी, आपने तो हमारे ऊपर बड़ी दया की। भला आप कभी हमारे खेत में काहे को आते। संयोग की बात है। आपको यदि और दो-चार गट्ठे चनों की आवश्यकता हो, तो घोड़े वगैरह के लिए उखड़वा लीजिए। आपका ही तो खेत है।’’ इसके पश्चात् जाट जी ने नाई से पूछा, ‘‘आप कौन हैं ?’’ वह बोला, ‘‘मैं तो आपका हज्जाम हूँ।’’ जाट जी बोले, ‘‘भला अगर इन ब्राह्मण जी ने चने उखाड़े ? तो यह हमारे पूजनीय ठहरे और कभी कथा-वार्ता सुना देते, कभी ब्याह-काज ही करा देते और कुँवर जी ने उखाड़े तो यह तो हमारे राजा ठहरे और फिर कभी हम लोगों पर आमदनी ही में दया करते, हमारी रक्षा करते, पर तूने साले चने क्यों उखाड़े गधे के खाए, न पाप में, न पुण्य में।’’ ऐसा कह जाट जी ने नाई को खूब पीटा। अब ब्राह्मण और क्षत्रिय बोले, ‘‘अच्छा हुआ, जो यह नव्वा पिट गया। यह कुछ बदनाम भी था। इस साले को जब कभी घर से बाल बनवाने को बुलाओ तो घंटों नहीं निकलता। चलो, आज ठीक हो गया।’’ उधर नाई सोचने लगा कि मैं पिट गया और ये बच गए। ये लोग जाकर गांव में कहेंगे कि देखो, नव्वा पिट गया। परमेश्वर, कहीं इन दोनों के भी दो-दो हाथ लग जाते, तो ठीक हो जाता। जब नाई पिट-पिटा के कुछ दूर गया, तो जाट जी बोले, ‘‘क्यों कुँवर जी, खेत क्या मुफ्त में तैयार हुआ था ? ब्राह्मण जी ने उखाड़े, तो वह तो हमारे पूजनीय ठहरे, पर आपने चने क्यों उखाड़े ?’’ ऐसा कह जाट जी ने इनकी भी खबर ली और लाठी मार-मार के शरीर लाल कर दिया। अब तो ब्राह्मण जी बोले, ‘‘अच्छा हुआ। यह भी बड़ा टर्रबाज था। कभी सीधा बोलता ही न था। हमेशा अकड़ के चलता था। आज सारी अकड़ निकल गई।’’ उधर क्षत्रिय मन में सोचने लगा कि देखो, हम पिट गए, पर यह ब्राह्मण बच गया। यह गाँव में जाकर कहेगा कि नाई और क्षत्रिय दोनों पिटे। परमेश्वर, यदि यह भी पिट जाता तो ठीक हो जाता। इस प्रकार जब कुँवर जी पिट-कुटकर चले और कुछ दूर पहुँचे, तब जाट जी पूजनीय की पूजा हेतु उनकी ओर मुखातिब हुए और ब्राह्मण से कहा, ‘‘क्यों महाराज, यह खेत ऐसे ही तैयार हो गया था ? इसमें मेहनत नहीं करनी पड़ी थी ? क्या आप संस्कारों या कथा-वथा में अपने टके छोड़ देते हैं ? अरे भाई, ये चने क्यों उखाड़े ?’’ यह कहकर जाट ने उनकी भी मरम्मत कर दी।

अब आप लोग नतीजा निकालें कि अगर ये तीनों आपस में न फूटते, तो कोई भी न पिटता-फूटे तो पिटे। मित्रों, ठीक यही हमारी, आपकी, सबकी हालत है। क्या आपको उन लोगों पर अफसोस नहीं, जो आपस में हमेशा अंगुल-अंगुल जगह पर, एक-एक पनाले पर और एक-एक खूँटे पर निष्प्रयोजन रात-दिन वैर-विरोध किया करते हैं ?

लाला की चतुराई

एक राजा ने अपने मंत्री से पूछा कि चारों वर्णों में कौन अधिक चतुर होता है ? मंत्री ने कहा, ‘‘राजन् ! लाला (वैश्य) विशेष चतुर होते हैं।’’ तब राजा ने कहा कि इस बात की परीक्षा ली जाएगी। संयोग से राजा एक दिन घूमते हुए किसी लाला के द्वार के सामने से जा रहे थे। घर में ललाइन लाला जी से कह रही थी कि अब तो निर्वाह होने की कोई सूरत नजर नहीं आती। लाला जी ने कहा, ‘‘प्रिये ! धैर्य धरो, नौकरी लगते ही मैं रुपयों से घर भर दूँगा।’’ राजा इस वार्तालाप को सुनकर बड़े आश्चर्य में आ गए और इस बात की परीक्षा के लिए दूसरे दिन उस लाला जी को दरबार में बुलाकर बोले, ‘‘लाला जी, आप नौकरी करेंगे ?’’ लाला जी ने कहा, ‘‘हाँ।’’ राजा ने पूछा, ‘‘कितनी तनख्वाह लीजिएगा ?’’ लाला जी बोले, ‘‘महाराज ! मुझे तनख्वाह की उतनी चिंता नहीं हैं; आप मुझे कुछ भी न दें, परंतु नौकर अवश्य रख लें।’’ राजा और आश्चर्य में आ गए और लाला जी को बिना तनख्वाह के नौकर रख लिया। लाला मूँछों पर ताव देते हुए बोले, ‘‘राजन्, अब मुझे कोई चिंता नहीं है। रुपयों का तो मैं बात की बात में ढेर लगा दूँ, परंतु आप मुझे कोई काम दें।’’ राजा ने उनको अस्तबल की निगरानी का हुक्म दिया।

दूसरे दिन लाला जी अस्तबल में पहुँचे और घोड़ों की लीद उठा-उठाकर सूँघने लगे। यह देख साईस डरे और हाथ जोड़कर लाला जी से बोले, ‘‘लाला साहब, आप यह क्या कर रहे हैं ?’’ लाला जी बोले, ‘‘कुछ नहीं, यही देख रहा हूँ कि घोड़ों को ठीक-ठीक दाना-घास दिया जाता है या नहीं ? आज राजा के यहाँ रिपोर्ट करनी है।’’ यह सुनकर वे घबरा गए और हजारों की भेंट लाला जी को नित्यप्रति देने लगे। एक महीने के बाद राजा ने लाला जी को बुलाकर पूछा कि आपने कितना रुपया पैदा किया ? लाला जी ने कहा, ‘‘जहाँपनाह ! पचास हजार रुपए।’’ राजा बड़े आश्चर्य में आ गए और लाला जी को वहाँ से हटाकर नक्षत्रों को गिनने के काम पर लगा दिया।

लाला जी तारे गिनने लगे। वे बड़े-बड़े सेठों के पास जाकर कहते कि तुम्हें अपनी कोठी गिरानी पड़ेगी, क्योंकि इससे मेरे काम में रुकावट पड़ती है। बेचारे सेठ हजार-दो हजार देकर अपना पीछा छुड़ाते। इस तरह फिर एक महीना बीत गया। राजा ने फिर लाला जी से पूछा, ‘‘इस महीने में आपने कितना कमाया ?’’ लाला जी बोले, ‘‘लाख रुपए।’’ दूसरे दिन राजा ने लाला जी को आज्ञा दी कि तुम नदी के तट पर बैठकर उसकी लहरें गिना करो। आज्ञा पाते ही लाला जी बस्ता लेकर नदी के किनारे जा डटे और जो जहाज अथवा नाव आती उसको रोक देते और कहते कि ठहरों, जब हम लहरों को गिन ले तब ले जाना। बेचारे व्यापारी जहाजों के रुकने से अपनी हानि समझकर हजारों रुपए लाला जी को देते। इस प्रकार राजा ने सोचा कि इन्हें अब ऐसा काम देना चाहिए कि जिससे किसी तरह आमदनी न हो सके। राजा ने एक हजार मन मोतीचूर के लड्डू बनवाकर एक घर में रख दिए और लड्डुओं को इधर-उधर बदलने के काम में लगा दिया तो लाला जी ने इसे भी गनीमत समझा। वे नित्य लड्डुओं को इधर-उधर बदलने लगे। अदलने-बदलने में जो चूरा झड़ता उसे अपने घर भिजवा देते। महीने के अंत में राजा ने लाला जी से पूछा, ‘‘इस महीने में आपको कितनी आमदनी हुई ?’’ लाला जी बोले, ‘‘हुजूर, दो सौ रुपए।’’ यह सुनकर राजा ने कहा, ‘‘अब मैं आपको नौकर नहीं रख सकता।’’ लाला जी बोले, ‘‘धर्मावतार ! ऐसा ही कीजिए, पर दरबार के समय रोज एक मिनट मुझसे एकांत में बात कर लिया कीजिए। इसके बदले मैं आपसे कुछ न लूँगा, बल्कि उलटे पाँच हजार रुपए नित्य सेवार्पण करता रहूँगा।’’ राजा ने स्वीकार कर लिया। वे नित्य दरबार के समय एक मिनट लाला जी से एकांत में मिलते और पाँच हजार रुपए प्राप्त करते। कुछ दिन बाद राजा ने लाला जी से कहा, ‘‘तुम्हें इससे क्या लाभ होता है, जो पाँच हजार नित्य खर्च करते हो ?’’ लाला जी बोले, ‘‘महाराज ! इसकी बदौलत आजकल मुझे लाख रुपए रोजाना की आमदनी है।’’ राजा चौंककर बोले, ‘‘वह कैसे ?’’ उत्तर में लाला जी ने कहा, ‘‘आपके दरबारियों से आपके रुष्ट होने की बात कहता हूँ, तो वे मुझे रिश्वत देकर आपको प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं। इसी से मुझे आजकल लाख रुपए प्रतिदिन की आमदनी होती है।’’ राजा यह सुनकर बहुत बिगड़े और लाला जी का सारा धन छीनकर उन्हें राज्य से बाहर निकाल दिया। रास्ते में लाला जी को कुछ भिखमंगे मिले। लाला ने उनसे कहा, ‘‘अजी, भीख माँगने में तुम्हें कुछ लाभ नहीं है। इसलिए तुम लोग मेरे यहाँ नौकरी कर लो। बेचारे मिखमंगे लाला जी की पट्टी में आ गए और दस रुपए महीने पर नौकर हो गए। वे नित्यप्रति भीख मागँते और शाम को लाला जी के यहाँ जमा कर देते और महीने भर-बाद दस रुपए ले संतोष से जीवन बिताते। इधर लाला जी की आमदनी का हिसाब न रहा। जब यह समाचार राजा को मालूम हुआ, तब वे बहुत प्रसन्न हुए और लाला जी की चतुराई की बड़ाई करने लगे। फिर उनको बुलाकर अपना मंत्री बना लिया।

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